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कब बदलेगी ये “इज्ज़त” की सोच ?????

teekhabol
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कल के अखबार में एक खबर पढ़ी, खबर दिल्ली के स्वरूप नगर की थी जिसमे एक लड़का और एक लड़की शादी करना चाहते थे मतलब प्रेम विवाह ! अपने घर वालो की मर्जी से, लेकिन जब लड़का, लड़की के घर अपनी शादी की बात करने गया तो लड़की के घर वालो ने लड़के को बुरी तरह पीटना शुरू कर दिया और ये देख कर जब लड़की ने लड़के को बचाने की कोशिश की तो उन लोगो ने लड़की को भी पीटना शुरू कर दिया ! पीटते-पीटते भी जब उनका मन नहीं भरा तो उन्होंने दोनों को लोहे के ट्रंक में डाल कर उन्हें तब तक बिजली का करंट दिया जब तक वो मर नहीं गए ! आज उन दोनों को मारने वाले लड़की के ताऊ और लड़की के पिता दोनों की पुलिस की गिरफ्त में है !और दोनों में से किसी को भी अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है !
अब दूसरी खबर ………अभी कुछ दिन पहले की ही बात जब एक युवक और एक युवती ने गंगनहर में कूद कर जान दे दी और यहाँ भी वजह वही थी दोनों शादी करना चाहते थे लेकिन दोनों के शायद घरवाले इस बात से राज़ी नहीं थे !
ऐसी और ना जाने कितनी ही घटनाएं हम रोज़ अखबारों में पदते है और अपने आस-पास देखते है ! इन सभी घटनाओं में सिर्फ एक ही चीज़ उभर कर आती है और वो है घर की इज्ज़त ! जिसके लिए माता-पिता अपने ही बच्चो का क़त्ल करने से नहीं हिचकते ! अभी पिछले दिनों ही ‘निरुपमा’ का केस सामने आया जिसकी चर्चा मैं अपने ही एक पूर्व लेख “सतयुग से चली आ रही है निरुपमा” में कर चुकी हूँ !
आखिर माँ-बाप अपनी ही बेटी का क़त्ल कैसे कर सकते है ??? वो भी उस बेटी का ——
जिस बेटी को एक माँ ने अपने ढूध से सीचा,
जिस बेटी की ऊँगली पकड़कर पिता ने उसे चलना सिखाया
,
जिसकी उंगलियों ने अपने भाई की कलाई को राखी से सजाया,
जिसकी एक मुस्कराहट ने पिता का हर गम दूर किया,
जिसकी गूंजती किलकारी ने माँ के होटो पर एक मुस्कान बिखेरी,
जिसे कभी पिता ने अपने घर की रौनक कहा,
जिसकी मासूम शरारतो ने भाई को हंसाया तो कभी परेशान किया,
जिसकी एक छोटी सी ख्वाइश पर भी पिता ने अपना सब कुछ वार दिया,
जिसकी हर पसंद नापसंद को पिता ने अपनी पसंद नापसंद बनाया,

जिसकी एक छोटी सी आह पर पिता ने दुनिया सर पर उठा ली,
जिसे पिता ने कभी अपने जीने की वजह बताया,
जिसकी हर सांस से माता-पिता ने अपनी हर सांस जोड़ ली,
जिसकी चंचलता ने माता-पिता को प्रफुल्लित कर दिया,
जिस पिता के आँगन में खेल कर वो बड़ी हुई,

उसकी एक चाहत ने ऐसा क्या कर दिया कि,
“एक पिता अपनी ही बेटी का कातिल बन गया”
स्वरुप नगर कि घटना में अपनी ही बेटी का क़त्ल करने के बाद एक पिता और एक ताऊ को (जो मेरी नजरो में पिता समान ही है) उन्हें अपने किए पर कोई पछतावा नहीं ! क्या ये सब करने के बाद वो दोनों पिता कहलाने लायक है ??
हमेशा से सुनती आई हूँ कि माता-पिता अपने बच्चो के लिए कुछ भी कर सकते है ! किसी भी माता-पिता के जिंदगी कि सबसे बड़ी चाहत अपने बच्चो को खुश देखना ही होती है ! लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है ???
किस इज्ज़त और किस समाज के लिए वो ऐसा कुक्र्त्य करते है !
क्या इज्ज़त, अपने ही जन्म दिए बच्चो कि ख़ुशी से बढकर है ???
अगर माता-पिता को कुछ वास्तव में गलत लगता है तो बच्चो को समझाया भी जा सकता है उन्हें उनकी गलतियों से अवगत भी कराया जा सकता है, लेकिन शायद नहीं क्योकि माता-पिता अक्सर अपने बच्चो के प्रश्नों का ना तो जवाब देना चाहते और ना ही उन्हें समझना चाहते, उन्हें ये पसंद ही नहीं कि उनके बच्चे कोई फैसला ले या फिर वो अपनी पसंद का जीवनसाथी चुन सके और शायद इसलिए ही माता-पिता के पास अपने बच्चो की पसंद को खारिज कर उन्हें मौत के घाट उतारने में भी कोई हिचक महसूस नहीं होती ! बल्कि अपने किए हुए ऐसे नरसंहार को वो गर्व से सही भी ठहराते है ! हाँ भई, तो क्या हुआ बच्चे जिंदा नहीं है उनकी इज्ज़त तो जिंदा रह ही जाती है ! जिसे शायद वो ताउम्र अपने गले से लगा कर सके ! शायद यही इज्ज़त उन्हें हर ख़ुशी दे सके, शायद यही इज्ज़त उनके जीवन का सहारा बन सके, और शायद यही इज्ज़त उनकी आखिरी सांस में उन्हें सहारा दे सके !
ओनर किलिंग पर लिखे अपने पिछले लेख की ही तरह आज एक बार फिर से हार मान गई ! माता-पिता की सोच शायद बच्चो की बली दे कर ही बदलेगी लेकिन इस सोच को बदलने के लिए और कितनी बलीया देनी पड़ेंगी ???

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